मनुष्य क्या हैं या कौन हैं ? What or who are humans?

मनुष्य क्या हैं या कौन हैं

मनुष्य की उत्पत्ति (Origin of Man)

मनुष्य की सृष्टि का विषय न केवल एक गहन आध्यात्मिक चर्चा है, बल्कि यह मानव अस्तित्व के सबसे मूलभूत प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास भी है। पवित्र शास्त्र के अनुसार, मनुष्य का सृजन केवल एक जैविक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर की योजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उत्पत्ति 1:26-27 में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि मनुष्य को परमेश्वर ने अपनी छवि और समानता में बनाया। इसका अर्थ केवल इतना नहीं है कि मनुष्य को भौतिक रूप से परमेश्वर की छवि में बनाया गया है, बल्कि इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मनुष्य को परमेश्वर के गुणों और नैतिकता में बनाया गया है। मसीही धर्म में, मनुष्य का सृजन एक दिव्य उद्देश्य के साथ जुड़ा हुआ है, जो उसे पृथ्वी पर परमेश्वर का प्रतिनिधि बनाता है।

यह विचार थॉमस एक्विनास द्वारा भी समर्थित है, जिन्होंने कहा, “मनुष्य को परमेश्वर ने इसलिए बनाया कि वह बुद्धि और ज्ञान से परिपूर्ण हो और इस ज्ञान के माध्यम से परमेश्वर के करीब आ सके।”

इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का सृजन केवल भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरे आध्यात्मिक उद्देश्य से जुड़ा हुआ है।

अगस्टीन ऑफ हिप्पो ने भी मनुष्य की सृष्टि के बारे में लिखा है, “परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी छवि में इसलिए बनाया, ताकि वह प्रेम, ज्ञान, और सच्चाई का अनुभव कर सके और उसे समझ सके।”

इस विचारधारा से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का सृजन एक विशेष उद्देश्य के साथ हुआ है, जो उसे अन्य सृष्टियों से अलग करता है। सृष्टि के संदर्भ में, मनुष्य को एक महत्वपूर्ण भूमिका दी गई है। उत्पत्ति 1:28 में लिखा है, “परमेश्वर ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा, ‘फलो-फूलो, और पृथ्वी को भर दो; और उसे अपने वश में करो; समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, और पृथ्वी के सब प्राणियों पर अधिकार रखो।'” इस वचन से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य को न केवल सृष्टि का हिस्सा बनाया गया है, बल्कि उसे सृष्टि के प्रभुत्व और देखरेख की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।

मनुष्य का सृजन एक गहरे और पवित्र संबंध को प्रकट करता है, जो कि परमेश्वर के साथ एक विशेष बंधन को दर्शाता है। यह संबंध मनुष्य की आत्मा और परमेश्वर के बीच की एकता को दर्शाता है, जो उसे अपने जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन प्रदान करता है। इस संबंध को स्थापित करने का उद्देश्य यह था कि मनुष्य अपने जीवन को परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलाए और उसकी महिमा करे। पवित्र शास्त्र के इस दृष्टिकोण से, मनुष्य का सृजन एक दिव्य योजना का हिस्सा है, जो उसे अन्य सृष्टियों से विशिष्ट बनाता है। यह योजना न केवल उसे पृथ्वी पर एक महत्वपूर्ण भूमिका देती है, बल्कि उसे परमेश्वर के साथ एक गहरे और अर्थपूर्ण संबंध में भी बांधती है। इसलिए, मनुष्य का सृजन एक ऐसा विषय है, जो उसके अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देता है और उसे एक उच्च आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ जोड़ता है।

परमेश्वर की छवि में सृजन (Creation in God’s Image)

परमेश्वर की छवि और समानता (God’s Image and Likeness)

उत्पत्ति 1:26-27 में, हमें बताया गया है, “फिर परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपनी छवि में, अपनी समानता के अनुसार बनाएं, और वे समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी, और उसके सब रेंगने वाले जीवों पर अधिकार रखें। और परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी छवि में बनाया, परमेश्वर की छवि में उसे बनाया; नर और नारी करके उन्हें बनाया।” यह वचन न केवल मनुष्य के भौतिक सृजन को दर्शाता है, बल्कि उसकी आत्मिक और नैतिक विशेषताओं को भी प्रकट करता है। “परमेश्वर की छवि” और “समानता” के अर्थ पर गहन विचार करने से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि मनुष्य को अद्वितीय तरीके से सृजा गया है।

जॉन केल्विन ने इस संदर्भ में लिखा है, “मनुष्य में परमेश्वर की छवि का अर्थ यह है कि उसमें ज्ञान, धार्मिकता, और पवित्रता का वह स्वरूप है, जो परमेश्वर के साथ उसके संबंध को दर्शाता है।”

केल्विन का यह विचार हमें यह सिखाता है कि परमेश्वर की छवि में सृजित होने का अर्थ केवल भौतिक रूप से नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और नैतिक वास्तविकता को व्यक्त करना है।

बौद्धिकता (Intellectuality)

मनुष्य की बौद्धिक क्षमता, जो उसे सोचने, समझने, और तर्क करने की सामर्थ प्रदान करती है, वह उसे अन्य सभी सृष्टियों से अलग बनाती है। यह क्षमता उसे न केवल इस भौतिक जगत को समझने में सक्षम बनाती है, बल्कि उसे परमेश्वर के रहस्यों और उसकी योजना को भी समझने में सहायता करती है। बौद्धिकता का यह गुण मनुष्य को परमेश्वर के साथ एक गहरे संवाद में प्रवेश करने में सक्षम बनाता है।

थॉमस एक्विनास ने कहा था, “मनुष्य की बौद्धिकता उसे परमेश्वर की सृष्टि की जटिलताओं को समझने और उसका आभार व्यक्त करने में सक्षम बनाती है।”

यह कथन इस तथ्य को उजागर करता है कि मनुष्य की बौद्धिकता केवल एक साधारण मानसिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर के साथ उसके गहरे संबंध का एक अभिन्न हिस्सा है।

नैतिकता (Morality)

मनुष्य की नैतिकता, या सही और गलत के बीच भेद करने की उसकी क्षमता, उसे परमेश्वर की छवि में सृजित होने का एक और प्रमाण देती है। परमेश्वर ने मनुष्य को नैतिक विवेक दिया है, जिससे वह अपने कार्यों का मूल्यांकन कर सकता है और एक धर्मनिष्ठ जीवन जी सकता है। रोमियों 2:15 में लिखा है, “उन्होंने अपने विवेक को प्रकट किया है, जबकि उनके हृदय में लिखी हुई विधि उनके विवेक द्वारा गवाही देती है।”

ऑगस्टिन ने नैतिकता के बारे में लिखा है, “मनुष्य की नैतिकता उसे परमेश्वर के समान बनने की अनुमति देती है, क्योंकि वह उसके द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन कर सकता है।”

ऑगस्टिन का यह विचार हमें यह सिखाता है कि नैतिकता मनुष्य को परमेश्वर  की इच्छा के अनुसार जीने में सक्षम बनाती है।

आत्मिकता (Spirituality)

मनुष्य की आत्मिकता उसकी आत्मा की गहराई और दिव्यता को प्रकट करती है, जो उसे परमेश्वर के साथ एक गहरे और अर्थपूर्ण संबंध की खोज में अग्रसर करती है। यह आत्मिकता ही वह गुण है जो मनुष्य को परमेश्वर की उपस्थिति का साक्षात्कार करने में सक्षम बनाता है, और उसे भक्ति, ध्यान, और प्रार्थना के माध्यम से उस परमेश्वर से जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। आत्मिकता मनुष्य के भीतर एक आंतरिक शांति और संतोष का स्रोत बनती है, जो उसे जीवन के हर क्षण में परमेश्वर की कृपा और मार्गदर्शन का अनुभव करने में समर्थ बनाती है। यही आत्मिकता उसे सांसारिक बंधनों से मुक्त कर, परमात्मा की ओर उन्मुख करती है, जिससे वह अपने अस्तित्व के वास्तविक उद्देश्य को समझ पाता है और जीवन की सच्ची पूर्णता की ओर बढ़ता है।

जॉन वेस्ली ने आत्मिकता के बारे में कहा, “आत्मिकता वह आधार है, जिस पर मनुष्य और परमेश्वर के बीच का संबंध स्थापित होता है। यह मनुष्य की आत्मा को परमेश्वर के करीब लाने का साधन है।”

वेस्ली का यह विचार हमें यह समझने में मदद करता है कि आत्मिकता मनुष्य को अन्य सभी सृष्टियों से अलग करती है और उसे एक उच्च उद्देश्य की ओर अग्रसर करती है।

नर और नारी (Male and Female)

लिंगों की समानता (Equality of Genders)

उत्पत्ति 1:27 में स्पष्ट रूप से लिखा गया है, “और परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी छवि में बनाया, परमेश्वर की छवि में उसे बनाया; नर और नारी करके उन्हें बनाया।” इस शास्त्रांश से यह समझ में आता है कि मनुष्य का सृजन न केवल व्यक्तिगत रूप से हुआ है, बल्कि सामूहिक रूप से भी। परमेश्वर ने नर और नारी दोनों को अपनी छवि में सृजित किया, जिसका अर्थ है कि दोनों में समान रूप से बौद्धिकता, नैतिकता, और आत्मिकता के गुण हैं।

जॉन स्टॉट ने लिखा है, “मनुष्य और स्त्री को समान रूप से परमेश्वर की छवि में सृजित किया गया है। उनका समान मूल्य और गरिमा है, जो कि उनके लिंग से परे है।”

इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि बाइबल में लिंगों के बीच कोई भेदभाव नहीं है। दोनों लिंगों को समान रूप से महत्व दिया गया है और उन्हें परमेश्वर के कार्य में भागीदार बनाया गया है।

लिंगों की विविधता (Diversity of Genders)

पवित्र शास्त्र में लिंगों की समानता के साथ-साथ उनकी विविधता को भी महत्वपूर्ण मान्यता दी गई है। इसमें नर और नारी दोनों के लिए विशिष्ट विशेषताओं और भूमिकाओं की बात की गई है, जो एक-दूसरे के पूरक हैं। नर और नारी के बीच की यह विविधता उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भूमिकाएँ निभाने में सक्षम बनाती है, जो कि समाज की समग्र उन्नति और संतुलन के लिए आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से, शास्त्र यह सिखाता है कि भले ही नर और नारी शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक रूप से विभिन्न हों, उनकी भूमिकाओं का महत्व बराबर है और वे एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। इस तरह, शास्त्र एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो लिंगों के सम्मान, सहयोग, और परस्पर पूरकता पर आधारित है, और यह सुनिश्चित करता है कि सभी मानवता एक-दूसरे के साथ मिलकर संतुलित और समृद्ध जीवन जी सके।

डाइटरिच बॉनहोफर कहते हैं, “परमेश्वर ने नर और नारी को इस प्रकार सृजित किया कि वे एक-दूसरे की कमी को पूरा कर सकें। उनकी भूमिकाओं की विविधता सृष्टि की सुंदरता और उसके रचनात्मक सामर्थ को दर्शाती है।”

इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि लिंगों की विविधता परमेश्वर की योजना का हिस्सा है, जो उसकी सृष्टि की पूर्णता को प्रकट करती है।

पारिवारिक संरचना (Family Structure)

नर और नारी के सृजन का एक प्रमुख उद्देश्य पारिवारिक संरचना की स्थापना करना था, जो समाज का मूलभूत आधार है। इस पारिवारिक इकाई का महत्व बाइबल में विशेष रूप से उल्लेखित है, जहाँ इसे परमेश्वर की शिक्षाओं और उसकी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए एक आवश्यक आधार माना गया है। परिवार, बाइबल के अनुसार, वह पवित्र इकाई है जहाँ परमेश्वर की शिक्षाओं का पालन किया जाता है, और जहाँ उसकी उपस्थिति को अनुभव किया जाता है। इसमें सृजन की उस दिव्य योजना की झलक मिलती है, जिसमें प्रत्येक सदस्य को अपनी भूमिका निभाने के लिए बुलाया गया है। इस तरह, परिवार न केवल व्यक्तिगत विकास और नैतिकता का केंद्र होता है, बल्कि समाज में नैतिकता, प्रेम, और सहयोग के प्रसार का भी स्रोत होता है। परिवार की यह संरचना, नर और नारी की साझेदारी पर आधारित है, जो समाज की स्थिरता और समृद्धि के लिए आवश्यक है।

जॉन क्रिसोस्टम कहते हैं, “परिवार वह स्थान है जहां प्रेम, सम्मान, और पारस्परिक समर्थन का पालन किया जाता है। यह एक ऐसा वातावरण है जहां परमेश्वर की इच्छा का पालन करना सिखाया जाता है।”

इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि परिवार न केवल समाज की आधारशिला है, बल्कि वह स्थान भी है जहां परमेश्वर   की शिक्षाओं का पालन किया जाता है और उसे महिमा दी जाती है।

इस प्रकार, पवित्र शास्त्र के अनुसार, नर और नारी का सृजन और उनकी भूमिकाएं एक दिव्य उद्देश्य के तहत होती हैं, जो समाज की स्थिरता, विकास और सामूहिक कल्याण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह दिव्य योजना केवल भौतिक और सामाजिक संतुलन ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी आवश्यक है। नर और नारी दोनों के अस्तित्व और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाएं मानवता के व्यापक कल्याण और आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इसके माध्यम से एक संतुलित और समृद्ध समाज का निर्माण संभव हो पाता है।

Resources:

1. The Holy Bible, English Standard Version (ESV). Crossway Bibles, 2001. – Genesis 1:26-28; Romans 2:15; Galatians 3:28.

2. Aquinas, Thomas. Summa Theologica. Translated by the Fathers of the English Dominican Province, Benziger Bros., 1947.

 – Insight into the intellectual and moral aspects of being created in God’s image.

3. Augustine of Hippo. The City of God. Translated by Marcus Dods, Hendrickson Publishers, 2009.

   – Reflections on humanity’s moral capacity and spiritual relationship with God.

4. Calvin, John. Institutes of the Christian Religion. Translated by Henry Beveridge, Wm. B. Eerdmans Publishing Co., 1989.

   – Commentary on the significance of being created in the image of God.

5. Stott, John. Issues Facing Christians Today. HarperOne, 1999.

   – Discussion on the equality of genders and their roles in Christian theology.

6. Bonhoeffer, Dietrich. Creation and Fall: A Theological Interpretation of Genesis 1-3. Translated by John W. De Gruchy, Fortress Press, 1997.

   – Exploration of gender diversity and the complementary roles of men and women in creation.

7. Wesley, John. Sermons on Several Occasions. Vol. 1-4, Wesleyan Methodist Book Room, 1872.

   – Teachings on the spiritual aspects of human existence and the relationship with God.

8. Chrysostom, John. On Marriage and Family Life. St. Vladimir’s Seminary Press, 1986.

   – Insights into the family structure and its significance in Christian theology.

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