परिचय
सामाजिक न्याय और पर्यावरण का संबंध न केवल आधुनिक समय की चिंता है, बल्कि यह मसीही धर्म के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। मसीही धर्म में यह माना जाता है कि हर इंसान और सृष्टि का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि हम सब मसीही की रचना हैं। इसलिए, सृष्टि के संरक्षण और गरीबों की देखभाल दोनों ही मसीही धर्म के नैतिक आदर्शों का हिस्सा हैं। सामाजिक न्याय का मुद्दा, खासकर गरीब और हाशिये पर खड़े समुदायों की सुरक्षा और सम्मान, सृष्टि और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारियों से भी जुड़ा हुआ है।
आज के समय में, पर्यावरणीय असमानताएं और प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित उपयोग का सबसे बड़ा प्रभाव उन्हीं लोगों पर पड़ता है जो समाज के कमजोर और वंचित वर्ग से आते हैं। इन समुदायों की आजीविका का प्रमुख स्रोत प्राकृतिक संसाधन होते हैं, और जब इन संसाधनों का अत्यधिक दोहन या प्रदूषण होता है, तो ये समुदाय सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित दोहन जैसी समस्याएं समाज में असमानता और अन्याय को बढ़ाती हैं।
यह मुद्दा आज के समय में और भी प्रासंगिक हो गया है, जब ये समस्याएं पूरी दुनिया में गंभीर रूप से उभर रही हैं। इस संदर्भ में, मसीही धर्म सिखाता है कि पर्यावरण का संरक्षण और समाज के हाशिये पर खड़े लोगों की रक्षा करना, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम दोनों का ध्यान रखें।
मसीही धर्म में सामाजिक न्याय और पर्यावरण की दृष्टि
मसीही धर्म में सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय संरक्षण को एक साथ देखा जाता है, क्योंकि दोनों ही परमेश्वर के प्रति हमारी जिम्मेदारी को व्यक्त करते हैं। बाइबिल की शिक्षाओं में, विशेष रूप से पुराना नियम और नया नियम के ग्रंथों में, समाज और सृष्टि दोनों के प्रति जिम्मेदारी निभाने पर जोर दिया गया है। परमेश्वर के साथ सही संबंध बनाए रखने के लिए, हमें इंसानों और सृष्टि, दोनों का ध्यान रखना चाहिए। अमोस 5:24 में बाइबल कहती है, “परन्तु न्याय जलधारा के समान और धर्म धारा के समान प्रबलता से बहता रहे।” यह पद स्पष्ट करता है कि न्याय और धर्म, दोनों ही आवश्यक हैं, ताकि हम मानवता और सृष्टि के प्रति परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें।
मसीही दृष्टिकोण से, न्याय और करुणा केवल इंसानों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह पूरे ब्रह्मांड पर लागू होते हैं। सृष्टि परमेश्वर का कार्य है, और इसके संरक्षण की जिम्मेदारी हमें सौंपी गई है। जब हम सृष्टि का सम्मान करते हैं, तो हम परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और करुणा को व्यक्त करते हैं। जॉन कैल्विन, जो प्रोटेस्टेंट सुधार के एक प्रमुख विचारक थे, उन्होंने प्रकृति के प्रति हमारे उत्तरदायित्व पर गहराई से प्रकाश डाला। उनके अनुसार-
“धरती का हर हिस्सा हमें परमेश्वर की अनंत महिमा की गवाही देता है” (Institutes of the Christian Religion, 1.5.1).
यह विचार हमें यह सिखाता है कि परमेश्वर की रचना का हर छोटा या बड़ा तत्व उसकी महिमा का प्रमाण है, और इसका संरक्षण करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। इस प्रकार, बाइबिल हमें प्रेरित करती है कि हम न केवल समाज में न्याय को कायम रखें, बल्कि सृष्टि के प्रति भी न्याय, करुणा और प्रेम का भाव रखें। परमेश्वर की सृष्टि का आदर करना, समाज में न्याय की स्थापना के साथ ही, हमारी आस्था और जिम्मेदारी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
गरीब और हाशिये पर खड़े समुदायों पर पर्यावरणीय समस्याओं का प्रभाव
आज की पर्यावरणीय चुनौतियों का सबसे गहरा प्रभाव उन समुदायों पर पड़ता है जो पहले से ही गरीब और असुरक्षित हैं। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से सबसे अधिक हानि गरीब समुदायों को होती है, जो अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होते हैं। ये समुदाय जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप आई आपदाओं, जैसे सूखा, बाढ़, और खाद्य संकट, का सबसे पहले और सबसे अधिक सामना करते हैं। उनके पास न तो इन आपदाओं से निपटने के साधन होते हैं, और न ही उनके पास इनसे बचने का कोई अन्य विकल्प होता है।
अमेरिकी मसीही लेखक और पर्यावरणविद्, एल्डर कॉलिन्स ने इस संदर्भ में लिखा है, “पर्यावरणीय संकट, गरीबों के संकट का विस्तार है” (The Green Bible, p. 158)।
यह कथन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय विनाश सबसे अधिक उन्हीं लोगों को प्रभावित करता है, जिनके पास पहले से ही संसाधनों की कमी है। आर्थिक रूप से कमजोर लोग, जिनके जीवन का आधार कृषि, जंगल और जल स्रोतों पर निर्भर होता है, पर्यावरणीय अस्थिरता के कारण अपनी आजीविका खो देते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित दोहन और सामाजिक असमानता के बीच गहरा संबंध है। जब शक्तिशाली और समृद्ध लोग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं, तो इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव गरीबों पर पड़ता है।
पोप फ्रांसिस, अपने चर्चित विश्वकोश Laudato Si‘ में इस पर चिंता जताते हुए कहते हैं, “हमारी पृथ्वी, हमारा साझा घर, गरीबों और आने वाली पीढ़ियों के लिए गंभीर खतरे में है” (Laudato Si’, p. 13)।
उनके अनुसार, प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित उपयोग केवल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता, बल्कि यह समाज में असमानता और अन्याय को भी बढ़ावा देता है। इसका तात्पर्य है कि पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है, और दोनों को साथ लेकर ही एक स्थिर और न्यायपूर्ण भविष्य का निर्माण संभव है।
पर्यावरणीय न्याय: बाइबिल की शिक्षाओं में
मसीही परंपरा में न्याय की परिभाषा केवल कानूनी और सामाजिक व्यवस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यापक रूप से परमेश्वर द्वारा दी गई सृष्टि के संरक्षण से भी जुड़ी है। यह विचार बाइबिल के विभिन्न पाठों में निहित है, जो यह स्पष्ट करते हैं कि पर्यावरण की देखभाल और इसका सम्मान करना ईश्वरीय न्याय का हिस्सा है। जब हम पर्यावरण का शोषण करते हैं, तो हम न केवल सृष्टि के प्रति अन्याय करते हैं, बल्कि उन लोगों को भी नुकसान पहुंचाते हैं, जो अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होते हैं।
रोमियों 8:19-23 में पौलुस स्पष्ट करते हैं कि पूरी सृष्टि “परमेश्वर के पुत्रों के प्रकट होने की प्रतीक्षा” कर रही है। इसका अर्थ है कि जब मानवजाति परमेश्वर के न्याय, प्रेम और दया के मार्ग पर चलेगी, तब सृष्टि को भी राहत मिलेगी। सृष्टि का दर्द और संघर्ष इस बात का प्रतीक है कि हम, मानव जाति, न्याय और करुणा के मार्ग से भटक गए हैं। मसीही धर्म में यह मान्यता है कि पर्यावरणीय समस्याएं केवल मानवीय लापरवाही का परिणाम नहीं हैं, बल्कि यह परमेश्वर के न्याय के विरुद्ध एक प्रकार का अपराध है। जब हम प्रकृति का शोषण करते हैं, तो हम परमेश्वर की सृष्टि के प्रति अवज्ञा करते हैं।
डॉ. सैली मैकफाग, जो एक प्रमुख मसीही पर्यावरणविद् हैं, इस बात पर जोर देती हैं कि “सृष्टि के साथ हमारे संबंध का एक पहलू सामाजिक न्याय है, और सृष्टि का संरक्षण इस बात की कुंजी है कि हम एक सच्चे और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सकें” (The Body of God, p. 102)।
इस प्रकार, मसीही दृष्टिकोण से पर्यावरणीय संरक्षण न केवल एक नैतिक कर्तव्य है, बल्कि यह सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए भी आवश्यक है। जब हम पर्यावरण का ध्यान रखते हैं, तो हम एक न्यायपूर्ण और दयालु समाज की स्थापना की ओर बढ़ते हैं।
यीशु मसीह का दृष्टिकोण: करुणा और न्याय
यीशु मसीह के जीवन और शिक्षाओं में न्याय, प्रेम, और करुणा के अद्भुत उदाहरण हर जगह देखने को मिलते हैं। यीशु ने अपने अनुयायियों को यह सिखाया कि कमजोर और गरीबों की मदद करना केवल एक नैतिक कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर के प्रति हमारी गहरी जिम्मेदारी है। मत्ती 25:40 में यीशु कहते हैं, “जो कुछ तुमने मेरे इन छोटे से छोटे भाइयों में से एक के साथ किया, वह तुमने मेरे साथ किया।” इस पद से स्पष्ट होता है कि गरीबों और हाशिये पर खड़े लोगों की सेवा परमेश्वर की सेवा के समान है।
यह संदेश पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है। पर्यावरण का शोषण और इसके प्रति लापरवाही समाज के गरीब और कमजोर वर्गों पर सीधा प्रभाव डालता है। वे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, प्रदूषण हो या प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन। जब हम पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं, तो हम अनजाने में समाज के सबसे कमजोर वर्गों के प्रति अन्याय कर रहे होते हैं।
पर्यावरणीय संरक्षण में सहभागिता का आह्वान करते हुए, यीशु के अनुयायी होने के नाते, हमें अपने संसाधनों का विवेकपूर्ण और सही उपयोग करना चाहिए। करुणा और दया केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह सृष्टि के हर जीव और प्राकृतिक संसाधन तक विस्तारित होनी चाहिए। बाइबिल यह भी सिखाती है कि प्रकृति का शोषण केवल भौतिक लाभ के लिए नहीं होना चाहिए।
जैसा कि डॉ. के. डबल्यू. टुरनर लिखते हैं, “धन और संपत्ति का एक हिस्सा देना, न केवल व्यक्तिगत आत्मा को समृद्ध करता है, बल्कि यह समाज के कमजोर वर्गों के लिए एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना करता है” (Social Justice in Christian Ethics, p. 234).
यह दृष्टिकोण सच्चे मसीही जीवन के आदर्शों को स्थापित करने में सहायक है। मसीही धर्म की शिक्षाएं स्पष्ट रूप से यह संकेत देती हैं कि सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय न्याय के बीच गहरा संबंध है। पर्यावरणीय संकट केवल प्राकृतिक संसाधनों की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक संकट भी है, जो गरीबों, हाशिये पर खड़े लोगों और आने वाली पीढ़ियों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। बाइबिल हमें यह सिखाती है कि परमेश्वर की सृष्टि के प्रति प्रेम, न्याय और करुणा के बिना हमारा विश्वास अधूरा है।
इसलिए, मसीही समुदाय के लिए यह आवश्यक है कि वे पर्यावरणीय समस्याओं को सामाजिक न्याय के रूप में देखें और इसके समाधान के लिए सक्रिय रूप से प्रयास करें। केवल यही दृष्टिकोण हमारे सृष्टिकर्ता के प्रति हमारी जिम्मेदारियों को पूरा कर सकता है।
FAQ
Bibliography
- Calvin, John. Institutes of the Christian Religion. Translated by Henry Beveridge. Wm. B. Eerdmans Publishing Co., 1989.
- Collins, Alder. The Green Bible. HarperOne, 2008.
- Francis, Pope. Laudato Si’: On Care for Our Common Home. Vatican Press, 2015.
- MacFague, Sallie. The Body of God: An Ecological Theology. Fortress Press, 1993.
- Turner, K. W. Social Justice in Christian Ethics. Oxford University Press, 2005.