परिचय
पर्यावरणीय प्रेम केवल प्रकृति की सुंदरता की सराहना तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सृष्टि के हर घटक के प्रति एक गहरी जिम्मेदारी और समर्पण का भाव शामिल है। बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर ने इस सृष्टि को अद्वितीय रूप से रचा है, और इसकी देखभाल करना हमारा नैतिक और आत्मिक कर्तव्य है। सृष्टि की सुरक्षा में लापरवाही बरतना, हमारे इस कर्तव्य से विमुख होना है।
जैसा कि बाइबिल विद्वान क्रिस्टोफर जे एच राइट लिखते हैं, “God’s creation is not just a background or scenery for human life. It is the stage for the drama of redemption, and we have a role in its care and stewardship” (Wright, The Mission of God’s People, p. 71)।
इसका तात्पर्य यह है कि सृष्टि की देखभाल हमारे आध्यात्मिक उद्देश्य का हिस्सा है। आज के समय में जब हम जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान जैसी गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं, हमें पर्यावरण के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना अत्यंत आवश्यक है। हमें प्रकृति के संसाधनों का सही ढंग से उपयोग करना चाहिए, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए यह धरती सुरक्षित और संपन्न बनी रहे। इसके लिए हमें केवल व्यक्तिगत रूप से नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से भी जागरूक होना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में हमारी सक्रिय भागीदारी यह दर्शाती है कि हम परमेश्वर की रचना के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते हैं। जब हम प्रकृति के प्रति करुणा और प्रेम का भाव रखते हैं, तब हम वास्तव में उस ईश्वरीय प्रेम को प्रतिबिंबित कर रहे होते हैं जो उसने हमें और इस संसार को दिया है।
विद्वान रिचर्ड बौकॉम भी कहते हैं, “The Bible calls us to love not only our neighbors but also the wider creation, with which God has a covenantal relationship” (Bauckham, Bible and Ecology, p. 59)।
सृष्टि और मनुष्य: एक ईश्वरीय संबंध
मसीही दृष्टिकोण से सृष्टि और मनुष्य के बीच एक गहरा संबंध स्थापित है। उत्पत्ति 1:26-28 में, परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी “छवि” में बनाया और सृष्टि पर अधिकार करने का आदेश दिया। यह अधिकार सिर्फ शासन करने या सृष्टि का शोषण करने के लिए नहीं था, बल्कि इसमें देखभाल और संरक्षण का कर्तव्य भी निहित था। उत्पत्ति 2:15 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि परमेश्वर ने आदम को “उपवन की देखभाल करने और उसकी रक्षा करने” के लिए नियुक्त किया। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि हमें सृष्टि के संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से करना चाहिए और उसका संरक्षण करना चाहिए। यह आदेश न केवल आदम के लिए था, बल्कि आज भी हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक है, जब हम तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध शोषण कर रहे हैं।
पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति मनुष्य की उदासीनता ने सृष्टि के प्रति हमारे कर्तव्यों की अनदेखी की है। आज हम जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जल और वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं, जो सृष्टि के प्रति हमारे गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार का परिणाम हैं। इस स्थिति में, हमें बाइबल के उस चित्रण की याद आती है जो रोमियों 8:22 में वर्णित है: “संपूर्ण सृष्टि अब तक कराहती है और जन्म पीड़ा में पड़ी है।” यह कराहना सृष्टि की पीड़ा का प्रतीक है, जो हमारे अनैतिक कार्यों और शोषण का परिणाम है। बाइबल यह स्पष्ट करती है कि जब सृष्टि पीड़ित होती है, तो यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम इसे बहाल करें और उसकी देखभाल करें। सृष्टि का संरक्षण केवल एक भौतिक कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह एक आत्मिक जिम्मेदारी भी है।
जैसे बाइबिल विद्वान क्रिस्टोफर जे एच राइट कहते हैं, “Creation care is integral to Christian mission, as it reflects our love for God and neighbor” (Wright, The Mission of God’s People, p. 72)।
जब हम सृष्टि के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं, तो हम न केवल पर्यावरण की रक्षा करते हैं, बल्कि परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को भी व्यक्त करते हैं।
परमेश्वर की रचना का सम्मान: सृष्टि के प्रति प्रेम
पर्यावरणीय प्रेम का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हम पृथ्वी को केवल एक संसाधन के रूप में नहीं देखें, बल्कि इसे परमेश्वर की रचना और धरोहर के रूप में सम्मान करें। परमेश्वर ने इस सृष्टि को अद्भुत संतुलन और सुंदरता से सजाया है, और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसकी देखभाल करें। जैसा कि प्रमुख मसीही विद्वान –
जॉन स्टॉट कहते हैं, “जब हम प्रकृति का शोषण करते हैं, तो हम मसीही की रचना का अपमान करते हैं।“
यह कथन हमें इस बात का गहरा एहसास कराता है कि प्रकृति के प्रति करुणा दिखाना केवल एक नैतिक कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह एक आत्मिक अनिवार्यता भी है। बाइबल की शिक्षाएँ बार-बार इस बात को रेखांकित करती हैं कि सृष्टि का संरक्षण न केवल हमारे भौतिक अस्तित्व के लिए आवश्यक है, बल्कि यह हमारे आध्यात्मिक जीवन का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उत्पत्ति 2:15 में कहा गया है कि परमेश्वर ने आदम को उपवन की देखभाल और रक्षा करने के लिए नियुक्त किया। यह आदेश आज के संदर्भ में उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। आधुनिक युग में, जब हम जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों की अत्यधिक खपत जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं, सृष्टि की देखभाल करने का यह आदेश हमारे लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
पर्यावरणीय प्रेम का यह दृष्टिकोण हमें हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में जिम्मेदारी और संयम का पालन करने के लिए प्रेरित करता है। हम प्रकृति के संसाधनों का उपयोग कैसे करते हैं, इसका प्रभाव न केवल वर्तमान पीढ़ी पर, बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर भी पड़ता है। हमें यह समझना होगा कि हमारा जीवन केवल व्यक्तिगत इच्छाओं और आवश्यकताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज और सृष्टि के साथ एक गहरे संबंध में बंधा हुआ है। जैसा कि रोमियों 8:19-21 में लिखा है, “संपूर्ण सृष्टि आशा करती है कि परमेश्वर के बच्चों की महिमा प्रकट हो।” इसका अर्थ है कि सृष्टि स्वयं हमारी जिम्मेदारी और नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रही है, ताकि वह भी परमेश्वर की महिमा में भागीदार हो सके।
यीशु मसीह की शिक्षाएँ भी इस बात पर बल देती हैं कि हमें अपने संसाधनों का बुद्धिमानी से प्रबंधन करना चाहिए। लूका 12:42-48 में यीशु ने एक दृष्टांत सुनाया जिसमें कहा गया कि जिस व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपी गई है, उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अपने संसाधनों का अच्छे से प्रबंधन करे, क्योंकि उसे इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा। यह दृष्टांत हमें यह सिखाता है कि परमेश्वर ने हमें जो कुछ भी दिया है—चाहे वह प्रकृति हो, समय हो, या अन्य संसाधन—उनका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, हमें उनका उपयोग इस प्रकार करना चाहिए कि वे सभी के लिए फायदेमंद हों, और इससे परमेश्वर की महिमा हो।
पर्यावरणीय प्रेम का सही अर्थ यह है कि हम अपने जीवन में संयम और करुणा को स्थान दें। यह प्रेम हमें सिखाता है कि हमें न केवल अपने लाभ के लिए कार्य करना है, बल्कि पूरी सृष्टि के हित में भी काम करना है। यह हमारे लिए एक चुनौती है कि हम अपने संसाधनों का शोषण करने के बजाय, उनका संरक्षण करें और उन्हें इस प्रकार प्रबंधित करें कि भविष्य की पीढ़ियाँ भी उनका आनंद ले सकें।
बाइबिल विद्वान रिचर्ड बौकॉम लिखते हैं, “Creation is not ours to exploit; it is God’s to be respected and cared for” (Bauckham, Bible and Ecology, p. 63)।
जब हम प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाते हैं, तब हम परमेश्वर की रचना का सम्मान करते हैं और उसे समर्पित भाव से संरक्षित करने का प्रयास करते हैं।
पर्यावरणीय संकट और बाइबल का संदेश
आज के पर्यावरणीय संकट में बाइबल के संदेश की प्रासंगिकता अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गई है। जैसे-जैसे हम बढ़ते हुए जंगलों की कटाई, नदियों का सूखना, और वन्य जीवों के विलुप्त होने की घटनाओं को देखते हैं, यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि पर हमारी लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। बाइबल में दी गई शिक्षाएँ हमें यह स्मरण कराती हैं कि परमेश्वर ने हमें सृष्टि की देखभाल करने का दायित्व दिया है, न कि उसे नष्ट करने का। यह संकट हमें हमारी ज़िम्मेदारी की याद दिलाता है कि हम सृष्टि का पोषण करें और इसका संरक्षण करें।
बाइबल के सन्देश स्पष्ट रूप से पर्यावरणीय देखभाल पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उत्पत्ति 2:15 में कहा गया है कि “यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य को लिया और उसे अदन की वाटिका में रख दिया कि वह उसकी खेती और रक्षा करे।” इस पद से यह स्पष्ट होता है कि मानव का पहला कर्तव्य सृष्टि की देखभाल करना है। परमेश्वर ने सृष्टि को हमें सौंपा, और इसके संरक्षण के लिए हमें जिम्मेदार बनाया। लेकिन आज हम उस कर्तव्य से विमुख हो गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं।
इसके साथ ही, इफिसियों 2:10 हमें याद दिलाता है कि “हम उसी के किए हुए हैं और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिए सृजे गए हैं जिन्हें परमेश्वर ने पहले से हमारे करने के लिए तैयार किया था।” यह पद यह स्पष्ट करता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं है, बल्कि परमेश्वर की योजनाओं के अनुसार, हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जो समाज और सृष्टि के लिए लाभकारी हों। पर्यावरणीय संरक्षण और देखभाल भी उन भले कार्यों में से एक है, जिसके लिए हमें प्रयासरत रहना चाहिए।
पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना और छोटे-छोटे प्रयास, जैसे जल और ऊर्जा की बचत, वृक्षारोपण, और कचरे का पुनर्चक्रण, हमें हमारी जिम्मेदारी निभाने के अवसर प्रदान करते हैं। इन छोटे कदमों के माध्यम से हम न केवल पर्यावरण को संरक्षित करते हैं, बल्कि परमेश्वर की रचना का सम्मान भी करते हैं।
ख्यातिप्राप्त विद्वान रिचर्ड बौकॉम इस बारे में लिखते हैं, “बाइबल की सृष्टि संबंधी शिक्षाओं का उद्देश्य यह दिखाना है कि मनुष्य को सृष्टि का हिस्सा होने के नाते, न केवल अपने लाभ के लिए, बल्कि सृष्टि के सभी तत्वों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए बुलाया गया है।” (Bauckham, Bible and Ecology, 2010)।
उनका यह कथन स्पष्ट करता है कि बाइबल सृष्टि के प्रति हमारी जिम्मेदारी की भावना को जागृत करती है, और हमें इस बात की याद दिलाती है कि हम सिर्फ उपभोक्ता नहीं हैं, बल्कि सृष्टि के रखवाले हैं।
अर्थशास्त्र और मसीही नैतिकता के विद्वान एलन ग्रेगोरी भी इस बात पर जोर देते हैं कि “पर्यावरणीय न्याय बाइबल में परमेश्वर के न्याय और दया का विस्तार है।” (Gregory, Environmental Stewardship in Christian Thought, 2012)।
उनका मानना है कि बाइबल हमें प्रेरित करती है कि हम पर्यावरणीय संकट को नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझें और इसका समाधान करें। अतः, आज के समय में, जब हमारा पर्यावरण गंभीर संकट का सामना कर रहा है, बाइबल की शिक्षाएँ हमें एक मार्गदर्शन देती हैं कि हम सृष्टि की देखभाल कैसे करें। यह संकट हमें हमारी नैतिक जिम्मेदारियों की याद दिलाता है, और परमेश्वर के साथ हमारी सहभागिता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है।
सामूहिक प्रयास: समाज और चर्च की भूमिका
पर्यावरणीय संरक्षण में समाज और चर्च की महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस तरह से पर्यावरणीय संकट लगातार बढ़ता जा रहा है, उसमें चर्च और धार्मिक संगठनों का योगदान विशेष रूप से प्रासंगिक हो गया है। बाइबल की शिक्षाएँ इस बात पर बल देती हैं कि सृष्टि की देखभाल करना मनुष्यों की नैतिक जिम्मेदारी है। उत्पत्ति 1:28 में परमेश्वर ने आदम और हव्वा को सृष्टि पर प्रभुत्व करने का आदेश दिया, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि वे सृष्टि का शोषण करें। इसके विपरीत, यह एक जिम्मेदारी थी कि वे सृष्टि का पोषण और देखभाल करें। चर्च को इस संदेश को प्रचारित करने का एक प्रभावशाली मंच बनना चाहिए। बाइबल के सन्देशों के माध्यम से पर्यावरणीय प्रेम और देखभाल का महत्व समझाया जा सकता है। चर्च में दिए गए उपदेश, बाइबिल अध्ययन समूह, और सामाजिक सेवा कार्यों के द्वारा, चर्च समुदाय में जागरूकता फैला सकता है। चर्च न केवल आध्यात्मिक दिशा दिखा सकता है, बल्कि समाज को भी सृष्टि की देखभाल के प्रति जिम्मेदार बना सकता है।
सामुदायिक कार्यों के माध्यम से चर्च की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। सामूहिक रूप से कार्य करना पर्यावरणीय संकट से निपटने का एक महत्वपूर्ण साधन हो सकता है। चर्च और धार्मिक संगठनों को वृक्षारोपण, कचरा प्रबंधन, जल संरक्षण, और जैव विविधता के संरक्षण के लिए सामुदायिक कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। इसके अलावा, जागरूकता अभियान चलाने से लोगों में सृष्टि के प्रति उनकी जिम्मेदारी की भावना जाग्रत होगी। चर्चों द्वारा उठाए गए ऐसे कदम न केवल समुदाय के लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करेंगे, बल्कि परमेश्वर की रचना के प्रति उनका सम्मान भी बढ़ाएंगे। मसीही विद्वानों ने भी पर्यावरण संरक्षण में चर्च की भूमिका पर जोर दिया है।
डायट्रिच बोनहॉफ़र ने कहा था, “सेवा का अर्थ केवल मानवता की सेवा नहीं है, बल्कि सृष्टि और प्रकृति की भी सेवा है।” (Bonhoeffer, Ethics, 1955)।
उनका यह विचार स्पष्ट करता है कि पर्यावरण की देखभाल एक आत्मिक कर्तव्य है और इसे चर्च के मिशन का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। इसी प्रकार –
थॉमस बेरी, एक प्रमुख मसीही पर्यावरणविद्, ने चर्च की भूमिका पर जोर देते हुए कहा, “चर्च के पास यह अनूठी क्षमता है कि वह लोगों को सृष्टि के साथ उनके संबंधों की पुनःव्याख्या करने में सहायता कर सके।” (Berry, The Dream of the Earth, 1988)।
उनका मानना था कि चर्च पर्यावरणीय शिक्षा और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को एक साथ लाकर समाज में परिवर्तन ला सकता है। बेरी ने विशेष रूप से चर्च को पृथ्वी और प्रकृति की रक्षा के लिए एक आध्यात्मिक आंदोलन के रूप में देखा।
जॉन स्टॉट, एक अन्य प्रमुख ईसाई विचारक, ने अपनी पुस्तक “The Radical Disciple” में लिखा, “मसीही धर्म हमें यह सिखाता है कि हम केवल प्रभुत्व के लिए नहीं, बल्कि सेवा के लिए बुलाए गए हैं। सेवा का अर्थ यह है कि हम सृष्टि की देखभाल करें और इसे नष्ट होने से बचाएं।” (Stott, The Radical Disciple, 2010)।
अतः, पर्यावरणीय संरक्षण के प्रयासों में चर्च की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। चर्च को एक ऐसी जगह बनना चाहिए जहाँ सृष्टि के प्रति जागरूकता फैलाई जाए और समुदाय के लोग पर्यावरण की देखभाल के लिए प्रेरित हों। बाइबल की शिक्षाएँ और मसीही विद्वानों के विचार इस बात पर जोर देते हैं कि सृष्टि की रक्षा केवल एक सामाजिक कार्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक कर्तव्य भी है, जो हमें परमेश्वर की सेवा के तहत निभाना चाहिए।
युवा पीढ़ी और पर्यावरणीय प्रेम
युवाओं को सृष्टि के प्रति प्रेम और सामंजस्य के महत्व को समझाना आज के समय में अत्यधिक आवश्यक हो गया है। वे भविष्य के नेता और समाज के कर्णधार हैं, और इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए उन्हें सृष्टि की देखभाल की शिक्षा दी जानी चाहिए। बाइबल में सृष्टि की देखभाल को एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य माना गया है। उत्पत्ति 2:15 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि परमेश्वर ने मनुष्य को अदन की वाटिका में रखा ताकि वह उसकी खेती और रक्षा करे। इसी प्रकार, युवाओं को यह सिखाना जरूरी है कि सृष्टि की देखभाल केवल एक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि उनके आध्यात्मिक विकास का भी एक अभिन्न हिस्सा है। युवाओं को पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से बताया जाना चाहिए कि छोटे-छोटे कदम जैसे पानी की बचत, प्लास्टिक का कम उपयोग, और वृक्षारोपण बड़े बदलाव ला सकते हैं।
ख्यातिप्राप्त मसीही विद्वान रिचर्ड बौकॉम ने लिखा है, “बाइबल की शिक्षाएँ न केवल आत्मिक मार्गदर्शन प्रदान करती हैं, बल्कि सृष्टि के प्रति हमारी जिम्मेदारियों को भी जागृत करती हैं। युवाओं को सिखाना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण उनके धार्मिक आचरण का एक हिस्सा है” (Bauckham, Bible and Ecology, p. 89)।
यह दृष्टिकोण युवाओं को प्रकृति के प्रति उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूक करने में सहायक हो सकता है। शिक्षा के माध्यम से, हम युवाओं को यह सिखा सकते हैं कि बाइबल की शिक्षाएँ केवल अतीत के लिए नहीं, बल्कि आज के समय में भी अत्यधिक प्रासंगिक हैं। रोमियों 8:19-21 में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि सृष्टि भी मुक्त होने की प्रतीक्षा कर रही है। इसका अर्थ यह है कि सृष्टि की देखभाल केवल पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आत्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। जब हम युवाओं को सृष्टि के प्रति जिम्मेदार बनाते हैं, तो हम न केवल पर्यावरण की रक्षा करते हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करते हैं।
मसीही लेखक एलेन ग्रेगोरी ने लिखा है, “पर्यावरणीय न्याय और सृष्टि की देखभाल बाइबल की नैतिक शिक्षाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। युवाओं को इन शिक्षाओं के माध्यम से यह सिखाया जा सकता है कि प्रकृति के प्रति प्रेम उनके धार्मिक कर्तव्यों का एक महत्वपूर्ण भाग है” (Gregory, Environmental Stewardship in Christian Thought, p. 132)।
इस प्रकार, बाइबल में दिए गए सिद्धांत युवाओं को सृष्टि के प्रति प्रेम और सामंजस्य सिखाने के लिए एक शक्तिशाली साधन हो सकते हैं। अंततः, यदि हम चाहते हैं कि हमारे भविष्य के नेता और समाज के कर्णधार सृष्टि की देखभाल और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता दें, तो हमें उन्हें बाइबल की शिक्षाओं के माध्यम से यह सिखाना होगा कि यह केवल एक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि आत्मिक कर्तव्य भी है। जब वे सृष्टि के साथ सामंजस्य स्थापित करेंगे, तो वे न केवल पर्यावरण का संरक्षण करेंगे, बल्कि अपने आध्यात्मिक जीवन को भी समृद्ध करेंगे।
सृष्टि के प्रति हमारा कर्तव्य
पर्यावरणीय प्रेम और सामंजस्य का अर्थ है पृथ्वी और उसके हर घटक के प्रति जिम्मेदारी, करुणा, और सम्मान का भाव रखना। यह केवल पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने का तरीका नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक और नैतिक कर्तव्य है, जो हमें बाइबल की शिक्षाओं के माध्यम से मिलता है।
मसीही दृष्टिकोण से, सृष्टि की देखभाल एक पवित्र कार्य है। जब हम पृथ्वी की देखभाल करते हैं, तो हम वास्तव में परमेश्वर की रचना का सम्मान करते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं। आज के समय में, जब पर्यावरणीय संकट गंभीर हो चुका है, हमें अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में जिम्मेदारी और संयम का पालन करना चाहिए।
हमें यह याद रखना चाहिए कि सृष्टि की देखभाल केवल वर्तमान के लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है। पर्यावरणीय प्रेम और सामंजस्य के बिना, हम न केवल अपने जीवन को संकट में डाल रहे हैं, बल्कि हम अपने आध्यात्मिक कर्तव्यों का भी पालन नहीं कर रहे हैं। इसलिए, हमें सृष्टि के प्रति करुणा और समर्पण के साथ जीवन जीना चाहिए, ताकि हम परमेश्वर की रचना का आदर कर सकें और एक बेहतर भविष्य सुनिश्चित कर सकें।
FAQ
Bibliography
- Bauckham, Richard. Bible and Ecology: Rediscovering the Community of Creation. Baylor University Press, 2010.
- Berry, Thomas. The Dream of the Earth. Sierra Club Books, 1988.
- Bonhoeffer, Dietrich. Ethics. Simon and Schuster, 1955.
- Gregory, Alan. Environmental Stewardship in Christian Thought. Cambridge University Press, 2012.
- Stott, John. The Radical Disciple: Some Neglected Aspects of Our Calling. IVP Books, 2010.
- Wright, Christopher J.H. The Mission of God’s People: A Biblical Theology of the Church’s Mission. Zondervan, 2010.